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क्यों सरकार विदेशी बॉन्ड जारी करती है?

क्यों सरकार विदेशी बॉन्ड जारी करती है?

Tag: bonds vs stock market

बॉन्ड क्या है, बॉन्ड्स और बॉन्ड मार्किट की जानकारी

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बॉन्ड का अर्थ, बॉन्ड्स ट्रेडिंग और बॉन्ड यील्ड

What is a bond, information of bonds in Hindi

बॉन्ड या बॉन्ड्स (Bonds) एक प्रकार का ऋण होता है. इसे एक प्रकार का उधार पत्र भी कह सकते है. इसे आमतौर पर किसी देश की सरकार के द्वारा जारी किया जाता है. सभी देशों की सरकारों को कभी न कभी धन की आवश्यकता होती है. इसके लिए वह बाज़ार में ऋण या उधार लेने के लिए बॉन्ड्स जारी करती है. यह बॉन्ड्स बड़े निवेशक, दुसरे देशों की सरकारें, आम जनता, बड़ी निवेशक कंपनियाँ, विदेशी निवेशक, बैंक्स (Banks), इन्सुरेंस कंपनियां (Insurance), हेज फंड्स (hedge funds) की कंपनियाँ आदि खरीदते है. इसके लिए बॉन्ड्स बेचने वाली सरकार हर बॉन्ड पर इंटरेस्ट या ब्याज देती है. बॉन्ड्स पर मिलने वाले ब्याज/इंटरेस्ट (interest) को कूपन (coupon) भी कहा जाता है. हर बॉन्ड की एक फेस वैल्यू (face value) होती है. यह वह रक़म होती है जिसके लिए की बॉन्ड जारी किया गया है, जैसे की ₹100 या $100 या 100 यूरो आदि. बॉन्ड्स एक निश्चित समय सीमा के लिए जारी किये जाते है, जिसके बाद बॉन्ड के धारक को उसका धन वापस मिलता है. जैसे की 1 साल, 2 साल, 5 साल, 10 साल या 30 साल आदि. बॉन्ड्स की समाप्ति की तारीख को उसकी मेचुरिटी डेट (maturity date) भी कहते है. इस मेचुरिटी डेट को बॉन्ड की फेस वैल्यू वापस मिलती है.

भारत सरकार के द्वारा जारी किये गए बॉन्ड्स को G-Sec भी कहते है. इन्हें RBI (रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया) के द्वारा जारी किया जाता है. मान लीजिये की आपने ₹1,00,000 के भारत सरकार के बॉन्ड्स ख़रीदे है जिनका कूपन (ब्याज/इंटरेस्ट रेट) 7% है और उनकी 30 साल की मेचुरिटी है. इसका अर्थ है की 30 साल तक आपको हर साल एक लाख रूपये पर 7% ब्याज के हिसाब से 7,000 रूपये मिलेंगे, और 30 साल के बाद आपको अपने ₹1,00,000 रूपये वापस मिल जायेंगे.

यह बॉन्ड्स भी शेयर्स, करेंसी और कमोडिटी की तरह बाज़ार में ख़रीदे और बेचे जाते है और इनके भाव में निरंतर उतार चढ़ाव होता रहता है. यह उतार चढ़ाव उस देश की अर्थ व्यवस्था, उस देश के केंद्रीय बैंक (Central/Federal Bank) के ब्याज दर (interest rate) आदि कई बातों पर निर्भर करता है. शेयर बाज़ार में निवेश और ट्रेडिंग करने के लिए बॉन्ड्स और बॉन्ड मार्किट की जानकारी आवश्यक है. बॉन्ड मार्किट ही शेयर मार्किट, करेंसी और कमोडिटी मार्किट की दिशा तय करता है. एक बार अमरीका के पूर्व राषट्रपति ओबामा ने भी कहा था की बॉन्ड मार्किट ही किंग (राजा) है और बाकी सभी मार्किट को कंट्रोल करता है.

बॉन्ड मार्किट को समझने के लिए आपको बॉन्ड और बॉन्ड्स की यील्ड को समझना बहुत जरूरी है. बॉन्ड्स का भाव और उनकी यील्ड का आपस में उल्टा संबंध होता है. इस बारे में इस वेबसाइट में कई पोस्ट् लिखी गयी है और आगे भी लिखी जाएगी. NSE (नेशनल स्टॉक एक्सचेंज ऑफ़ इंडिया) में आप G-Sec के फ्यूचर (futures) पर भी ट्रेडिंग कर सकते है. इस विषय में इस वेबसाइट में अलग से क्यों सरकार विदेशी बॉन्ड जारी करती है? पोस्ट लिखी गयी है. सरकारों का द्वारा जारी बॉन्ड्स के अलावा कई प्राइवेट कंपनियाँ भी अपने बॉन्ड्स जारी करती है, लेकिन जब भी बॉन्ड्स की बात हो रही होती है तो वह आमतौर पर उस देश की केंद्र सरकार के द्वारा जारी किये गए बॉन्ड के बारे में ही होती है.

USA या अमेरिकी बॉन्ड्स की यील्ड्स का अध्ययन करने से आप अमेरिकी स्टॉक मार्किट और अमेरिकी डॉलर की पोजीशन का अंदाज़ा लगा सकते है. इनमे उतार चढ़ाव का असर भारत और पूरे विश्व के शेयर बाज़ारों पर पड़ता है. इसी प्रकार जर्मनी, फ्रांस, इंग्लैंड, जापान आदि देशों के बॉन्ड्स की यील्ड्स में होने वाले उतार चढ़ाव का असर उनके और विश्व के वित्तीय बाज़ारों पर भी पड़ता है. अमेरिकी सरकार के द्वारा जारी बॉन्ड्स का उतार चढ़ाव सोने के भाव (Gold), चाँदी (Silver) और क्रूड आयल (crude oil) आदि पर भी पड़ता है. बॉन्ड यील्ड्स की जानकारी और इस उतार चढ़ाव की जानकारी के लिए इस वेबसाइट pogga.org पर लिखे अन्य पोस्ट पढ़े.

वित्तीय पारदर्शिता में राज्यों को भी बनाना होगा भागीदार

fiscal space

financial transparency and states cooperation
#Business_Standard
पिछले वर्षों में भारत में सार्वजनिक वित्त पर विमर्श काफी हद तक केंद्र सरकार के खर्चों के प्रबंधन और उसके राजस्व संग्रह पर ही केंद्रित रहा है। लोक नीति के टिप्पणीकारों ने इस पर काफी कुछ लिखा है कि केंद्र को आर्थिक संसाधनों का आवंटन करते समय क्यों राजकोषीय विवेक के रास्ते पर चलना चाहिए? Fiscal deficit and states
 हालांकि इस दौरान देश के 29 राज्यों के राजकोषीय विवेक के बारे में बहुत कम चर्चा हुई है। यह सच है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष जैसे संस्थानों या रेटिंग एजेंसियों की चिंता देश के समग्र राजकोषीय घाटे पर अधिक रहती है जिसमें केंद्र के साथ राज्यों का भी राजकोषीय घाटा शामिल होता है। अधिकांश मीडिया विश्लेषणों में केंद्र सरकार के राजकोषीय घाटे पर ही जोर रहने से राज्यों पर अपने राजकोषीय प्रबंधन के तरीके अपनाने का दबाव कम रहा है। जरूरत इस बात की है कि इस स्थिति को बदला जाए।
 पांच साल पहले तक सभी राज्यों का कुल बजट आकार में केंद्र के बजट से कम ही होता था। वर्ष 2011-12 में केंद्रीय बजट 13.04 लाख करोड़ रुपये का था जो सभी राज्यों के 12.85 लाख करोड़ रुपये के कुल बजट से अधिक था। लेकिन उसके अगले ही साल राज्यों का समेकित बजट पहली बार केंद्रीय बजट को पार कर गया था। वर्ष 2012-13 में केंद्रीय बजट 14.1 लाख करोड़ रुपये था जबकि राज्यों का कुल बजट 14.55 लाख करोड़ रुपये हो चुका था। उसके बाद से केंद्र एवं राज्यों के बजट आकार में अंतर लगातार बढ़ा है। वर्ष 2016-17 में राज्यों का कुल बजट 27.24 लाख करोड़ रुपये हो गया जो 20.14 लाख करोड़ रुपये के केंद्रीय बजट से करीब एक तिहाई अधिक है।
जहां तक राजकोषीय विवेक का सवाल है तो राज्यों में इसे लेकर नकारात्मक रुख रहा है। वर्ष 2011-12 में राज्यों का समेकित राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का करीब 1.9 फीसदी था जबकि केंद्र का राजकोषीय घाटा 5.8 फीसदी था। लेकिन वर्ष 2016-17 में राज्यों का राजकोषीय घाटा 3.66 फीसदी के स्तर पर पहुंच गया जो केंद्र के राजकोषीय घाटे 3.5 फीसदी से अधिक है। लिहाजा न केवल राज्यों का बजटीय आकार केंद्र से बड़ा हो चुका है बल्कि उनका राजकोषीय घाटा भी केंद्र को पीछे छोडऩे लगा है। इसके बावजूद छिटपुट टिप्पणियों को छोड़कर राजकोषीय सशक्तीकरण पर होने वाला विमर्श काफी हद तक इसी पर केंद्रित रहता है कि केंद्रीय राजकोषीय घाटे पर काबू पाने के लिए वित्त मंत्री क्या कदम उठाने जा रहे हैं? इससे साफ है कि राजकोषीय घाटे पर हमारा नजरिया असंतुलित है और उसमें बदलाव की जरूरत है।


What reforms initiated


 राज्यों और केंद्र के स्तर पर लागू सुधारों पर एक नजर डालते हैं। भारत में कारोबारी सुगमता पर आई नवीनतम विश्व बैंक रिपोर्ट से कुछ नीतिगत पहलू सामने आते हैं। भारत की समग्र रैंकिंग 130 से सुधरकर 100वें स्थान पर आ चुकी है।
 भारत को कर भुगतान, दिवालिया समाधान, कर्ज लेने और अल्पांश शेयरधारकों के हितों को संरक्षित करने जैसे कदमों का फायदा हुआ वहीं यह भी सच है कि ये सारे कदम केंद्र सरकार ने उठाए हैं।
India and Financial reform in state
 इसके उलट राज्यों ने नीतियों और प्रक्रियाओं में सुधार को तवज्जो नहीं दी। राज्यों में प्रक्रियागत सुधार की रफ्तार या तो कम हो रही है या बहुत धीमी गति से काम हो रहा है। कारोबार शुरू करने, बिजली कनेक्शन लेने और प्रॉपर्टी पंजीयन के मामले में तो भारत की रैंकिंग गिर गई। यहां हमें यह ध्यान रखना होगा कि ये सारी गतिविधियां राज्यों के स्तर पर ही क्रियान्वित की जाती है।
विदेशी निवेशक भी भारत में कारोबार के इस विरोधाभास को लेकर सतर्क हो गए हैं। आम तौर पर वे केंद्र सरकार द्वारा जारी बॉन्ड खरीदने में काफी रुचि दिखाते हैं लेकिन राज्य सरकारों द्वारा दिए जाने वाले कर्जों के प्रति उनका रवैया ठंडा है।
 विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों ने केंद्र सरकार के बॉन्ड में निवेश की अधिकतम सीमा 1.9 लाख करोड़ रुपये का करीब 99 फीसदी हिस्सा खरीद लिया है। लेकिन राज्य सरकारों के बॉन्ड एसडीएल में भी 30,000 करोड़ रुपये के निवेश की मंजूरी का केवल 17 फीसदी हिस्सा ही विदेशी निवेशकों ने खरीदा है। इसका राज्य सरकारों की वित्तीय स्थिति पर गंभीर असर पड़ेगा। राज्यों को बढ़ते राजकोषीय घाटे के चलते चालू वित्त वर्ष में 4.5 लाख करोड़ रुपये का ऋण लेना पड़ सकता है। एसडीएल में विदेशी निवेशकों का घटता रुझान राज्यों की आर्थिक स्थिति में आ रही कमजोरी को बयां करता है। चिंता की बड़ी बात यह है कि इससे इन बॉन्ड की कीमतों पर उल्टा असर पड़ता है। विदेशी निवेशकों ने राज्यों के बॉन्ड में कम रुचि दिखाने के लिए वित्तीय मामलों में पारदर्शिता की कमी को जिम्मेदार बताया है। राज्य सरकारें जिस तरह से वित्तीय मामले संभालती हैं उससे विश्लेषण और तुलनात्मक अध्ययन कर पाना मुश्किल होता है। केंद्रीय बैंक ये आंकड़े जारी करता है लेकिन उसमें दो साल का वक्त लगता है। ऐसे में अधिकतर टिप्पणीकारों और विश्लेषकों को इस बाधा से जूझना होता है।
ऐसे में एक मानकीकृत ढांचे की तत्काल जरूरत है ताकि सभी राज्य बिना देरी के बजट आंकड़े पेश कर सकें। यह सच है कि सभी राज्यों का समेकित बजट और उनका राजकोषीय घाटा केंद्र से आगे निकल चुका है। ऐसे में राज्यों को अपने बजट आंकड़े अलग रूप में पेश करने की छूट नहीं दी जा सकती है। रेटिंग एजेंसियां इस पर एतराज जता सकती हैं जिससे भारत की समग्र रैंकिंग भी प्रभावित हो सकती है। राज्यों में प्रक्रियागत सुधार लागू करने और उद्योग एवं वाणिज्य मंजूरी देने में सुधार नहीं होने तक कारोबारी सुगमता रैंकिंग में सुधार नहीं आ सकता है। पारदर्शिता और राजकोषीय नीति मानकों में सुधार लाना कई तरह से संघ की जिम्मेदारी है क्योंकि इन्हें नजरअंदाज करने का असर सारे देश पर पड़ेगा। मोदी सरकार अक्सर सहकारी संघवाद की बात करती है लिहाजा इस सोच को अंजाम देने का वक्त आ चुका है। राज्यों को भी अपने वित्तीय मामलों में अधिक पारदर्शिता लाने के साथ सुधारों की पहल करनी होगी। क्या नीति आयोग इसे अपनी बड़ी जिम्मेदारी के तौर पर स्वीकार करेगा?

क्यों प्रधानमंत्री नहीं कर सकते हैं वित्तीय आपातकाल की घोषणा

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विशेषज्ञों ने कहा कि सरकार के पास धन की व्यवस्था करने के लिए कई उपकरण हैं और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह आपातकालीन प्रावधानों को लागू नहीं करेगा क्योंकि इससे विदेशी निवेशकों की आँखों में देश की छवि धूमिल होगी.

नई दिल्ली: संवैधानिक और आर्थिक मुद्दों पर दो विशेषज्ञों का मानना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को केंद्र सरकार के कमजोर वित्त के बावजूद कोविड-19 महामारी से लड़ने के लिए संविधान के अनुच्छेद 360 के तहत वित्तीय आपातकाल की संभावना नहीं है.

विशेषज्ञों ने कहा कि सरकार के पास धन की व्यवस्था करने के लिए कई उपकरण हैं और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह आपातकालीन प्रावधानों को लागू नहीं करेगा क्योंकि इससे विदेशी निवेशकों की आँखों में देश की छवि धूमिल होगी.

लोकसभा के पूर्व महासचिव पीडीटी आचार्य ने कहा, "इटली, स्पेन, यूके और यूएसए जैसे देश, जिन्होंने भारत की तुलना में बहुत अधिक नुकसान झेला है, ने वित्तीय आपातकाल घोषित नहीं किया है."

अत्यधिक संक्रामक कोविड-19, जिसे कोरोना वायरस के नाम से भी जाना जाता है, के कारण होने क्यों सरकार विदेशी बॉन्ड जारी करती है? वाली वैश्विक महामारी ने देश में 200 से अधिक लोगों और दुनिया भर में 90,000 से अधिक लोगों की जान ले ली है. अत्यधिक संक्रामक वायरस ने प्रभावित लोगों की औसत मृत्यु दर के साथ दुनिया में 1.5 मिलियन से अधिक लोगों को संक्रमित किया है.

देश में वायरस के प्रसार को धीमा करने के लिए, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले महीने 21 दिनों के पूर्ण लॉकडाउन की घोषणा की जिसने आर्थिक गतिविधि को बाधित कर दिया. अभूतपूर्व चुनौती से निपटने के लिए, केंद्र सरकार ने पिछले महीने भारत के 80 करोड़ गरीब लोगों के लिए 1.7 लाख करोड़ (23 बिलियन डॉलर) राहत पैकेज की घोषणा की.

कोरोना के प्रकोप ने केंद्र सरकार को संसद के सदस्यों के वेतन में कटौती करने और अपने स्थानीय क्षेत्र विकास निधि (एमपीलैड फंड) को दो साल के लिए निलंबित करने के लिए मजबूर किया ताकि मुश्किल समय पर धन की व्यवस्था की जा सके.

इससे यह अटकलें शुरू हो गईं कि सरकार संविधान के अनुच्छेद 360 के तहत वित्तीय आपातकाल की घोषणा कर सकती है क्योंकि यह प्रावधान केंद्र को अपने कर्मचारियों और अन्य संवैधानिक कार्यालयों के वेतन को कम करने और राज्यों के बजट और व्यय को नियंत्रित करने के लिए व्यापक अधिकार देता है.

पीडीटी आचार्य ने ईटीवी भारत को बताया, "अगर आप (सरकार) वित्तीय आपातकाल की घोषणा करने की सोच रहे हैं तो आप पूरी दुनिया को विज्ञापन दे रहे हैं कि भारत सरकार के पास कोई क्रेडिट नहीं है, इसकी कोई वित्तीय स्थिरता नहीं है."

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री संतोष मेहरोत्रा ​​ने भी संविधान के अनुच्छेद 360 के तहत वित्तीय आपातकाल लागू करने की संभावना से इनकार किया.

यूपीए सरकार के दौरान योजना आयोग में सचिव स्तर पर काम करने वाले संतोष मेहरोत्रा ​​ने कहा कि कई कारणों से वित्तीय आपातकाल की घोषणा करने की कोई संभावना नहीं है.

संतोष मेहरोत्रा ​​ने ईटीवी भारत को बताया, "सरकार को इस समय क्या चाहिए? इसकी जेब में और पैसे की जरूरत है और इसमें कई उपकरण हैं जो इसे इस उद्देश्य के लिए तैनात कर सकते हैं."

उन्होंने कहा कि 1 लाख करोड़ रुपये, जो कि सार्वजनिक वित्त प्रबंधन प्रणाली (पीएफएमएस) के साथ उपलब्ध है, का उपयोग कोविड-19 महामारी के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए किया जा सकता है.

उन्होंने कहा, "यह 1 लाख करोड़ क्यों सरकार विदेशी बॉन्ड जारी करती है? रुपये है, जो देश की जीडीपी का आधा प्रतिशत है."

उन्होंने सरकार के लिए उपलब्ध विभिन्न विकल्पों के बारे में बात करते हुए समझाया, "अगर सरकार का उद्देश्य एक उद्देश्य से दूसरे पर स्विच करने में खर्च हो रहा है, तो सरकार को पीएफएमएस में पहले से ही उपलब्ध धन को जुटाने से रोकने वाली कोई चीज नहीं है."

उन्होंने कहा कि पीएफएमएस में उपलब्ध धन का उपयोग करने के अलावा, सरकार के पास कई अन्य उपकरण हैं: यह ट्रेजरी बॉन्ड जारी कर सकता है, यह राज्यों को अधिक धन उधार लेने की अनुमति भी दे सकता है और बड़े शहरी स्थानीय निकायों को भी धन जुटाने के लिए बॉन्ड जारी करने की अनुमति दी जा सकती है.

संतोष मेहरोत्रा ​​और पीडीटी आचार्य भी अंतरराष्ट्रीय नतीजों की ओर इशारा करते हैं जो सरकार द्वारा वित्तीय आपातकाल घोषित क्यों सरकार विदेशी बॉन्ड जारी करती है? किए जाने के बाद होगा.

उन्होंने कहा कि इस तरह के किसी भी कदम से देश की छवि विदेशों में धूमिल हो जाएगी क्योंकि सरकार इस बात पर गर्व करती है कि देश दुनिया की सबसे तेजी से उभरती प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में से एक के रूप में उभरा है और यह फ्रांस और ब्रिटेन जैसे देशों को पीछे छोड़ते हुए दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गई है.

पीडीटी आचार्य ने ईटीवी भारत को बताया, "अगर हम वित्तीय आपातकाल की घोषणा करते हैं तो इसके अंतरराष्ट्रीय नतीजे होंगे. यह विदेशी निवेश और कई सारी चीजों को प्रभावित करेगा."

सरकार को रिज़र्व बैंक से क्यों चाहिए 3.60 लाख करोड़ रु.?

मोदी सरकार ने रिज़र्व बैंक के पास अतिरिक्त पड़े तक़रीबन साढ़े तीन लाख करोड़ रुपये ठीक आम चुनाव से पहले मांगे हैं। इन पैसों का इस्तेमाल नई जनहितकारी योजनाओं और आधारभूत परियोजनाओं में निवेश के लिए हो सकता है। इसके अलावा वह ये पैसे सरकारी बैंकों में भी लगा सकती है ताकि उद्योग जगत को कम ब्याज़ पर अधिक क्यों सरकार विदेशी बॉन्ड जारी करती है? पैसे दिए जा सकें। इसलिए मामला सिर्फ़ केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता और केंद्र के साथ उसके तक़रार या दोनों के अहम की लड़ाई का नहीं है। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने आरबीआई से उसके सरप्लस रिज़र्व से 3.60 लाख करोड़ रुपए मांगे तो सबके कान खड़े हो गए।

कितन पैसे हैं आरबीआई के पास?

आंकड़ों के मुताबिक़, 30 जून 2018 को रिज़र्व बैंक के पास कुल परिसम्पत्ति यानी नेट असेट्स 36.17 लाख करोड़ रुपए थे। बैंकिंग व्यवस्था और अर्थनीति को सुचारू रूप से चलाने के लिए केंद्रीय बैंक के पास 27 प्रतिशत सरप्लस रिज़र्व यानी लगभग 9.70 लाख करोड़ रुपए होने क्यों सरकार विदेशी बॉन्ड जारी करती है? चाहिए। लेकिन वित्त मंत्रालय का कहना है कि रिज़र्व बैंक को इतने पैसे सरप्लस रिज़र्व यानी अतिरिक्त रखने की ज़रूरत ही नहीं है।

Why Modi govt wants money from RBI just ahead of polls? - Satya Hindi

सरकार का मानना है कि 14 फ़ीसद रिज़र्व काफ़ी है। यह रकम लगभग पांच लाख करोड़ रुपए है। यानी बैंक के पास 4.70 लाख करोड़ फालतू का पड़ा रहेगा। वह उसमें से 3.60 लाख करोड़ रुपए सरकार को दे दे। फालतू पड़े पैसे का बेहतर इस्तेमाल किया जा सकता है।

क्यों चाहिए सरप्लस रिज़र्व?

अब सवाल यह उठता है कि केंद्रीय बैंक को सरप्लस रिज़र्व क्यों रखना चाहिए? बैंक के पास अतिरिक्त पैसे होने चाहिए ताकि अर्थव्यवस्था को यकायक आर्थिक और मौद्रिक झटका लगने की स्थिति से उबारा जा सके, राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति में पैसे चाहिए, विदेशी परिसम्पत्तियों (असेट्स) से होने वाले संभावित नुक़सान से बचने के लिए पैसे चाहिए। इसके अलावा मुद्रा एक्सचेंज दर क़ाबू में रखने के लिए भी केंद्रीय बैंक के पास पैसे होने चाहिए। रुपए के तेज़ी से गिरने-उठने के समय यह रक़म अच्छी ही होनी चाहिए ताकि एक सीमा के पास रिज़र्व बैंक डॉलर ख़रीद कर थोड़ा बहुत समर्थन उसे दे सके।

कितना सरप्लस ज़रूरी?

यह रक़म कितनी होनी चाहिए? अमरीकी केंद्रीय बैंक फ़ेडरल रिज़र्व के पास 13 फ़ीसद और ब्रिटेन के केंद्रीय बैंक, बैंक ऑफ़ इंगलैंड के पास 14 प्रतिशत का सरप्लस रिज़र्व रहता है। अंतरराष्ट्रीय औसत 16 फ़ीसद है। लेकिन विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के पास ज़्यादा पैसे होने चाहिए, क्योंकि उनकी अर्थव्यवस्था अधिक अस्थिर रहती है। सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अर विंद सुब्रमण्यम का मानना है कि चाल लाख करोड़ काफ़ी हैं। रिज़र्व बैंक इस पर बात करने को तैयार हो गया है कि कुल परिसम्पत्तियों का कितना फ़ीसद इन सब कामों के लिए यानी सरप्लस रिज़र्व में होना चाहिए।

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बीते साल घोषणा की थी कि सरकारी बैंकों में और पैसे डाले जाएंगे। अब वे कह रहे हैं कि इसके लिए सरप्लस रिज़र्व का इस्तेमाल किया जाएगा। पर केंद्रीय बैंक का कहना है कि इसके लिए सरकार बॉन्ड जारी करे, यानी बाज़ार से पैसे उगाहे।

पर उस पर तो ब्याज़ देने होंगे। सरकार यह काम मुफ़्त करना चाहती है। यानी हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखा होए।

सरकार का तर्क

सरकार का तर्क है कि बैंकों के पास ज़्यादा पैसे होेंगे तो वह उद्योग जगत और दूसरों को देंगे। इसके अलावा वह यह भी चाहती है कि केंद्रीय बैंक रिज़र्व रिपो रेट यानी जिस दर पर पैसे बैंकों को देती है, उसमें कटौती करे। इससे कम दर पर ज़्यादा पैसे लोगों को मिलेंगे।

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दरअसल केंद्रीय बैंक और वित्त मंत्रालय का पेच यही फंसा हुआ है। मौद्रिक नीति और महंगाई दर नियंत्रित करना रिज़र्व बैंक का काम है तो राजस्व नीति और विकास पर ध्यान देना सरकार का काम। दोनों अपना-अपना काम करना चाहते हैं और यह स्वाभाविक भी है। केंद्रीय बैंक दोनों के बीच संतुलन बनाए रखना चाहता है, पर सरकार को हड़बड़ी है। उसे तुरंत नतीज़े चाहिए।

समझा जाता है कि सरकार उद्योगपतियों के दबाव में है। उसे ज़ल्दी से ज़ल्दी सस्ते में ढेर सारा पैसे मुहैया कराना है। पर वह दिए हुए कर्ज़ के डूबने, कर्ज़ पर सही फ़ायदा नहीं मिलने या अतिरिक्त पैसे की वजह से अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले दबाव की अनदेखी कर रही है।

चुनाव का असर

चुनाव के पहले पैसे मिल जाते तो सरकार आधारभूत संरचना के विकास के लिए पैसे लगाती, जिससे नए रोज़गार बनने का वह कम से कम दावा तो करती। नई और लोक लुभावन स्कीमों के एलान से राजनीतिक फ़ायदा मिलता और उद्योगपतियों को खुश करने से तो लाभ मिलता ही है।पर लगता है कि केंद्रीय बैंक उसकी मंशा पूरा नहीं होने देगा। रिज़र्व बैंक के केंद्रीय बोर्ड की अगली बैठक 19 नवंबर को होगी और उसमें इन मुद्दों पर ज़ोरदार बहस तय है। पर लोकसभा चुनाव में इतना कम समय बचा है कि क्यों सरकार विदेशी बॉन्ड जारी करती है? मोदी सरकार केंद्रीय बैंक की बांह मरोड़ कर पैसे शायद नहीं ले पाएगी।

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